बारिश की बूंदे

मैं अभी ऑफिस  में हूं और बाहर बारिश हो रही है। रह-रह कर बादलों के गरजने की आवाजें आ रही है। दिल तो कर रहा है कि बाहर जाकर इस बारिश का मजा लूं पर अफसोस ये नौकरी हमें हमारे मन मुताबिक जीने ही नहीं देती। अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे सोचा की चलो अपने दिल के इस दर्द को शब्दों से बयां करती हूं। बारिश की ये रिम-झिम करती आवाज जब कनों में पड़ती है तो आप एक ही पल में कहीं खो से जाते हैं। भीगी मिट्टी की ये खुशबू अपने साथ यादों का पूरा गुलिस्ता लेकर आती है बचपन में सभी भाई बहनों के साथ बारिश में नहाना, गांव के खेतों से आती टर-टर करती मेढ़को की आवाजे,कागज की नाव को पानी में चलाने की जिद और ना जाने क्या-क्या पर आज पैसा कमाने के चक्कर में ये सब चीजें बहुत पीछे छुट गयी हैं।
अपने गांव से दूर शहर में रहकर पैसा कमाना हमारी मजबूरी भी है और जरूरत भी। खैर मैं तो बारिश में नहीं जा सकती पर मन तो बारिश की बूंदों में साराबोर हो रहा है। खिड़की के शीशे पर पड़ती ये बारिश की बूंदें अंदर आने केे लिये मानो मुझ से इजाजत मांग रहीं हों पर मैं अभी इन्हें सिर्फ देख सकती हूं छू नहीं सकती। चलिए बाते बहुत हो गई अब कुछ काम कर लेती हूं समय पर इन्हें  खत्म भी तो करना है।

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