बदलाव की आंधी

मै एक औरत हूं शायद इस लिए तीन तलाक का मद्दा मुुझे भीतर तक छू जाता है। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमारे देश के प्रधान मंत्री ने लाल किले के प्राचीर से अनेको ज्वलंत मुद्दे के साथ तीन तलाक के विषय पर चिंता जाहिर की और उनके इस वक्तव्य के बाद मीडिया में एक बार फिर से इस विषय पर बहस होनी शुरू हो गयी है पर मुझे ये समझ नहीं आता की टीवी चैनलों पर आये ये मौलवि आपनी पूरी ताकत से तीन तलाक और हलाला जैसी धर्मिक कूरीतियों का विरोध करते हैं पर जैसे ही इस मुद्दे का कानूनी समाधान निकालने की बात होती है तो वो इतना घबरा क्यों जाते हैं ? उन्हें किस बात का डर है कि कही बरसों से महिलाओं पर पुरूषों द्वारा किया गया शासन छिन ना जाये या फिर ये मुद्दा उनकी वैचारिक विरोधी सरकार का एजंडा है इस लिये ? डर है ये तो दिख रहा है।
 टीवी चैनल पर बैठे मुस्लिम समाज के ठेकेदार बने ये चंद मौलवी आखिर तीन तलाक और हलाला जैसे धर्म के नाम पर चल रहे इस पाखंड का कानून के द्वारा सकारातमक परिवातन क्यों नहीं होने देना चाहते। वो बदलाव से इतना डर क्यों रहे हैं ? वो शायद ये भूल रहे हैं कि दुुनिया में एक ही चीज स्थाई है और वो है परिवरतन।  प्रकृती भी समय समय पर अपने नियम बनाती और तोडती रहती है। तो हमारे मुुस्लिम भाइयों को एसा क्यों लगता है कि अगर उनके समाज की औरते इस आडंबर से बाहर निकल आएगीं तो उनका इसलाम खतरे में आजाएगा।
 खैर उनके डर का आलम तो ये है कि कुछ लोग इस मुद्दे को यह कहकर दबाने की कोशि कर रहे हैं कि यह परेशानी मुस्लिम समाज की महिलाओं में इक्का दूक्का ही देखने को मिलती है शायद इसी लिये आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ से पैरवी कर रहे कपिल सिब्‍बल ने इस पहलू के बारे में रेखांकित करते हुए कहा कि कुल मुस्लिम तलाकों में आधा प्रतिशत से भी कम यानी 0.44 प्रतिशत ही तीन तलाक के मामले देखने को मिले। चलिये एक बार को हम इनकी इस दलील को मान भी लेते हैं तो इसका अर्थ क्या है ? क्या वो आधा प्रतिशत महिलायें जो इस जूर्म का शिकार हो रही हैं सिर्फ इस लिये  उनके के आसुओं  की  कोई कीमत नहीं है क्यों की वो संख्या में कम है। इस बेतुकी दलील का समाज में स्थान हो सकता है पर कनून में नहीं। हमें तो बचपन से यही बताया जाता है कि गलत तो गलत होता है वो इस पैमाने पर तो सही नहीं हो सकता कि गलत जहां और जिनके साथ हो रहा है वो संख्या में कम हैं। खैर ये सोच जिनकी है उन्हे मुबारक हमें हमारे कानून व्यवस्था पर पूण विशवास है कि अब किसी पुरूष के द्वारा तीन शब्दों से किसी महिला की दुुनिया नहीं उजडेगी। मुस्लिम समाज की महिलाओं के इस दर्द पर मुझे दुष्यंत का वो शेर याद आ रहा है।
                               हो गया है पीर परवत सी पिघलनी चाहिये
                               इस हिमालय से कोइ गंगा निकलनी चाहिये

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